प्रभु से संबंध : भक्ति व भक्त की महिमा

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ईश्वर से हमारा संबंध शिशु-सुलभ होता है। ईश्वर का स्थान हमारे अन्तर्मन में वैसे ही होता है जैसे संतान के हृदय में मां-पिता का सर्वोच्च स्थान। हमें ईश्वर के साथ अपने संबंधों पर वैसे ही सहज व स्वाभाविक विश्वास होना चाहिए जैसे अपने जन्मदाता पर;जो हमारे दु:ख दर्द को बगैर कहे ही जान जाते हैं और जब भी हमें उनकी जरूरत होती है वो हमारा कष्ट दूर करने स्वंय चले आते हैं ।

हम परम सत्य को पहचान कर ही अपनी आत्मा को संतृप्त कर सकते हैं।इस सत्य को प्राप्त करने व पहचानने के लिए ईश्वर से स्वार्थहीन संबंध जोड़ना होगा । ईश्वर का सानिध्य प्राप्त करने के लिए अपने हर कार्य के लिए ईश्वर को जोड़ना होगा।उस परमपिता के साथ संबंध,तड़प की अनुभूति के बिना नहीं जुड़ सकता। वेदना ही ईश्वर प्रेम को उत्प्रेरित करती है ।

जब हम अपना आप भुलाकर ईश्वर से संबंध जोड़ते हैं तो हमें एक ऐसी अद्भभुत आन्तरिक,शक्ति, शांति व आनंद का अनुभव होता है जिसका शब्दों में बखान नहीं किया जा सकता है। वही ईश्वरीय विश्वास हमारे सारे दुखों से ऊपर उठाकर हमें एक नयी राह दिखाता है। ईश्वर के सानिध्य में रहते हुए हमारे अंदर स्वत: भक्ति पूर्ण शर्त हीन प्रेम व समर्पण की भावना उत्पन्न हो जाती है। किसी को निस्वार्थ भाव से चाहने में जो असीम आनंद है उसके समक्ष सभी सुख नगण्य हैं फिर चाहें वो ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा भक्ति व समर्पण हो अथवा मानव या पशु पक्षियों के प्रति प्रेम की भावना हो ।

ईश्वर सदैव ही अपने भक्तों के हितों की रक्षा करते हुए वही करते हैं जिसमें उनके भक्तों का हित छिपा होता है।श्रीभग्वदगीता में कहा भी गया है "योगक्षेमं वहाभ्यहम्" ,अर्थात जो साधक ईश्वर से नित्य संबंध रखते हुए केवल उनकी शरण में रहते हुए उसी एक सर्वशक्तिमान ईश्वर की निर्लिप्त भाव से उपासना करते हैं तब ईश्वर निष्काम सेवारत अपने भक्तों की स्वयं चिंता व रक्षा करते हैं।

ईश्वर की उपासना में लीन व्यक्ति अनुकूल, प्रतिकूल दोनों स्थितियों में प्रसन्न रहता है, क्योंकि वह यह जानता है कि जो भी परिस्थिति है वो उनके द्वारा ही उत्पन्न की गई हैं और वही इसका निराकरण कर हर परिस्थिति का सामना करने की शक्ति प्रदान करेंगें ।

श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने (श्लोक ७/१६) भक्त के चार प्रकार बताए हैं- आर्थार्थी, आर्तु, जिज्ञासु व ज्ञानी |

अर्थार्थी - ‌उसे कहते हैं जो धन प्राप्ति,वैभव, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए ईश आराधना करता है,

आर्तु -संकट निवारण के लिए ईश्वर की उपासना करता है ,

ईश्वर को जानने की जिज्ञासा रखने वाला जिज्ञासु कहलाता है, और,

ज्ञानी वो है जो अच्छी तरह जानता है कि ईश्वर ही परम सत्य है इस सत्य से बढ़कर और कुछ भी नहीं है ।

ईश्वर का अपने भक्त के प्रति प्रेम ही है जो ये कहते हैं "ज्ञानी त्वमा मेवुत्ताम गतम्" ,अर्थात ज्ञानी तो साक्षात मेरा ही स्वरुप है।

ईश्वर कृपा से जब मानव अपनी त्रुटियों को समझ अपनी गल्तियों का प्रायश्चित कर भक्ति के मार्ग पर चलने लगता है तब अनन्य भक्ति की महिमा के कारण उसका मन निर्मल हो जाता है और उसके अंदर स्वत:क्षमाशीलता व दया का आधिपत्य स्थापित हो जाता है ।वह अपने शत्रु को भी सहज भाव से क्षमा कर देता है।

भक्ति के अनेक मार्ग हैं - ज्ञान मार्ग, प्रेम मार्ग, आत्मचिंतन, सत्संग अथवा योग साधना। ये हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम किस मार्ग को अपनाते हैं। श्रृद्धा व प्रेम में ही भक्ति पल्लवित व पुष्पित होती है।जब भक्ति में हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व खो जाता है तब नाम व रुप का स्थायित्व ही क्या? भक्ति में ही उस तत्व का दर्शन होता है जिस पर नाम और रुप छुपे होते हैं।

एक बात जो सबसे महत्वपूर्ण है वो ये है कि ईश्वर की आराधना में लीन होने का अर्थ ये कदापि नहीं है कि हम अपने उत्तरदायित्वों से विमुख हो जाएं या अंधविश्वास की अंधी गलियों में भटकने लग जाएं ।अपने कर्तव्य से विमुख होने पर ईश्वर भी प्रसन्न नहीं होते।अपने कर्तव्य को पूर्ण करते हुए ही सच्चे मन से ईश्वर में लौ लगाकर हम ईश कृपा और उनका आशीर्वाद प्राप्त कर भक्ति व‌ ज्ञान मार्ग पर निरंतर अग्रसर होकर ईश्वर का सानिध्य प्राप्त कर सकते हैं ।

ये एक वृहद विषय है इसपर जितना भी लिखा जाए कम है । ईश्वर की महिमा का वर्णन करना सहज नहीं है ।इतना ही कहा जा सकता है कि ईश्वर के प्रति श्रद्धा, विश्वास, निस्वार्थ व सहज भाव से समर्पण ही ईश्वर की भक्ति का सहज मार्ग है ।

--डा०मंजू दीक्षित "अगुम"

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डॉ. मंजू दीक्षित "अगुम"

अपने अंदर की उथल-पुथल और मन के भावों को कागज़ पर उकेरने की एक छोटी सी कोशिश